लोगों की राय

नारी विमर्श >> रुकोगी नहीं राधिका

रुकोगी नहीं राधिका

उषा प्रियंवदा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3233
आईएसबीएन :9788171789238

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

389 पाठक हैं

यह लघु उपन्यास प्रवासी भारतीयों की मानसिकता में गहरे उतरकर बड़ी संवेदनशीलता से परत-दर-परत उनके असमंजस को पकडने का सार्थक प्रयास है...

Rukogi Nahin Radhika

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह लघु उपन्यास प्रवासी भारतीयों की मानसिकता में गहरे उतरकर बड़ी संवेदनशीलता से परत-दर-परत उनके असमंजस को पकडने का सार्थक प्रयास है। ऐसे लोग जो जानते हैं कि कुछ साल विदेश में रहने पर भारत में लौटना संभव नहीं होता पर यह भी जानते हैं कि सुख न वहाँ था, न यहाँ है। स्वदेश में अनिश्चितता और सारहीनता का एहसास, वापसी पर परिवार के बीच होने वाले अनुभव विदेश में पहले ‘कल्चरल शॉक’ और स्वदेश में लौटने पर ‘रिवर्स कल्चरल शॉक’  से गुजरती नायिका को कुछ और करने पर बाध्य कर देता हैः ‘‘मेरा परिवार, मेरा परिवेश, मेरे जीवन की अर्थहीनता’ और मैं स्वयं जो होती जा रही हूँ, एक भावनाहीन पुतली-सी।’’

पर यह उपन्यास अकेली स्त्री के अनुभवों की नहीं, आधुनिक समाज के बदलते रिश्तों की प्रकृति से तालमेल न बैठा पानेवाले अनेक व्यक्तियों और संबंधों की बारीकी से पड़ताल करता है। एक असामान्य पिता की सामान्य संतानों के साथ असहज संबंधों की कथा है यह उपन्यास। ऐसे लोग जिनके परिवारिक सीमांतों पर बाहरी पात्रों की सहज दस्तक, इन रिश्तों को ऐसे आयाम देती है जो ठेठ आधुनिक समाज की देन हैं।

 

रुकोगी नहीं राधिका

कुछ भी नहीं बदला। सबकुछ वैसा ही जैसा कि सदा से था, जैसा कि राधिका ने जाना और बार-बार याद किया। दिल्ली की धूल और गर्द-भरी एक शाम, ऊपर फीका, नीला आकाश, वृक्षों की मैली पत्तियाँ, ऊबड़-खाबड़ पेवमेंट, यह राधिका देख और पहचान रही है। पहचानने में पुलक का भाव है : अरे, यह सब ज्यों का त्यों ही रहा। अपने अंदर कुछ और डूबने पर राधिका हृदय में खेद के नन्हें से आभास को पकड़ पाती है कि उसकी आँखों को सब बड़ा रंगहीन, मटमैला और अँधेरा-सा लग रहा है। इसका मतलब है कि वह पश्चिम के देशों की झिलमिल, रंग-बिरंगी, चमकदार रोशनियों की आदी हो गई है, अनजान में ही।

राधिका मुड़कर सड़क की ओर देखती है। उस पर निरंतर बसों, साइकिलों और पदयात्रियों का प्रवाह है, पर भारतीय चेहरे अपने परिवेश में होने के कारण कितने स्वस्तिपूर्ण लग रहे हैं। वह भी उसमें एक है, इस भीड़ का एक अंश। वह उस भीड़ में अपने को खो सकती है और कोई उस पर ध्यान भी न देगा। यह चिर-प्रतीक्षित क्षण, कई वर्षों बाद स्वदेश में पहली शाम अब उसके सम्मुख है। पर राधिका महसूस कर रही है कि उसके अंदर धीरे-धीरे एक हताशा रेंगने लगी है।
 नहीं, वह आज की शाम अपने को मूडी नहीं होने देगी, और उस भाव दशा से उबरने का प्रयत्न करते हुए उसने अक्षय को देखा, जो इतनी देर से उसके पास ऐसे मौन खड़ा था, जैसे कि राधिका के विचारों में व्याघात न पहुँचाना चाहता हो।
यह अक्षय ?

सुबह वह उसे एयरपोर्ट पर मिला था, इससे पहले राधिका ने उसे कभी नहीं देखा था। वह उससे मिलने आया है, यह जानवर भी आश्चर्य-सा हुआ था। पहली दृष्टि में वह जो देख पाई, उसमें वह ठीक लगा था। अक्षय एक काफी अच्छे दर्जी का सिला सूट पहने था, टाई भी अच्छी थी, बहुत भड़कीली नहीं; न एकदम सोबर। कलाइयाँ मजबूत, जूतों पर पॉलिस बाल अधिक बड़े नहीं। राधिका को वह सीधा देखना टाल जाता था, उससे लगा कि वह स्त्रियों के बारे में कहीं लज्जालु है, और यह जानकर वह मुस्करा पड़ी थी। राधिका ने अब सायास सोचना बंद कर दिया है, केवल नेत्र भारतीय दृश्य पर भटक रहे हैं।

रेस्तराँ में घुसने से पहले जब वह ठिठककर खड़ी हो गई तो अक्षय भी रुका। उसे थोड़ा-सा विस्मय हुआ, पर अधिक नहीं। सुबह जब से राधिका को एयरपोर्ट से लाया था, तब से राधिका के आचरण पर कभी-कभी विस्मय होता। वह सबसे इतनी अलग जो थी। न चाहते हुए भी अक्षय राधिका की असाधारणता से थोड़ा प्रभावित हो आया था। सारे दिन ऑफिस में काम करते हुए भी उसने कई बार सोचा कि क्या है वह, जो उसे असाधारण बना देता है। अपने पर बड़ा विश्वास ? विदेश में रहने और अध्ययन करने से आया सोफिस्टिकेशन ? या असाधारण पिता की पुत्री होने से चरित्र की गहनता और दुरूहता ? पर, वह किसी एक चीज पर उँगली नहीं रख पाया।

सुबह पैन एम के बड़े जहाज से तमाम यात्री उतरे थे, पर न जाने क्या देखते ही अक्षय के मन में यह भाव आ गया था कि वह राधिका की विमाता विद्या ने, ट्रंक कॉल करके यह आग्रह किया था कि अक्षय राधिका से एयरपोर्ट पर मिल ले और ठीक से देखभाल कर रात की ट्रेन पर बैठा दे। वह वर्षों बाद लौट रही है और चाहते हुए भी विद्या मिलने आने में असमर्थ है।

विद्या को अक्षय बहुत दिनों से जानता है, उसकी बड़ी बहन अंजलि की विद्या सहपाठिनी रह चुकी है। विद्या जल्दी उत्तेजित या विचलित नहीं होती, यह सब खूब जानता था, तभी उसके कंठ में जो आग्रह था, उससे अक्षय को थोड़ा-सा आश्चर्य हुआ। उसके मन में राधिका को लेकर एक भीरू, संकोची लड़की का चित्र उपजा था, जो कि विदेश से एम.ए. की डिग्री लेकर आने के बाद भी असहाय, शीघ्र रो-आनेवाली होगी। यद्यपि अब तक विद्या के ही मुख से अक्षय ने जो कुछ राधिका के बारे में जाना था, उससे यह चित्र तालमेल नहीं खाता था। राधिका जहाज से उतरकर कस्टम काउंटर पर गई, तब तक वह बाहर ही प्रतीक्षा करता रहा। करीब पौन घंटे के बाद वह आकर सीढ़ियों पर खड़ी हो गई। जाकर उससे बात करने से पहले अक्षय कुछ क्षण रुककर उसे अच्छी तरह देख लेना चाहता था, जिससे कि व्यवहार किस प्रकार किया जाए, यह निर्धारित करने में आसानी हो।

राधिका क्लांत दीख रही थी। उसके पास एक बड़ा-सा सूटकेस रखा था, बाएँ हाथ में वह उसी से मैचिंग हल्के स्लेटी रंग का कास्मेटिक केस पकड़े हुए थी। बार-बार दाहिना हाथ बालों पर चला जाता और वह ढीले हो आए जूड़े को सँभालने लगती। अक्षय ने पास जाकर उसे नमस्कार किया।
‘‘मेरा नाम अक्षय है। मुझे विद्या जी आपकी माँ ने भेजा है, वे स्वयं न आ सकीं।’’
राधिका पहले हल्का-सा चौंकी, फिर उसने छोटा-सा नमस्कार किया और जिज्ञासु दृष्टि से उसे देखा।
‘‘कल रात उन्होंने मुझे टेलीफोन किया और कहा कि आप आ रही हैं, मैं आपसे मिल लूँ,’’ अक्षय ने बात पूरी की।
राधिका ने इस बात पर भी कुछ नहीं कहा। निचले होंठ का एक कोना दाँतों से दबा लिया और खुली, भरपूर दृष्टि से अक्षय को ताकती रही।

‘‘चलिए’’, राधिका से कोई शाब्दिक प्रत्युत्तर न पा अक्षय ने उसका सूटकेस उठा लिया। काफी भारी था। वह सामने खड़ी टैक्सी की ओर बढ़ा।
राधिका चुपचाप पीछे चली गई, जब दरवाजा खुला, तो बैठ गई।
राधिका असहाय या भीरु है, इसका आभास अक्षय को अभी तक न हुआ। वह कुछ उदास हो आई है, यह उसने अनुभव किया या कि वह लंबी यात्रा के अंत पर क्लांत ही हो।
‘‘आप न्यूयार्क से कब चली थीं ?’’ ‘‘कल सुबह,’’ राधिका ने कहा।
वह तल्लीनता से बाहर देखने लगी थी। एयरपोर्ट से शहर तक अपने में ऐसा रम्य या नेत्र प्रिय है ही क्या, जिसे ऐसे रम्य या नेत्र-प्रिय है ही क्या, जिसे ऐसे ध्यान से देखा जाए। सड़क के किनारे-किनारे कँटीले झाड़ खेतों में कहीं-कहीं, सरसों के फूल, एक दो जगह कुओं पर चलता हुआ रहट....

‘‘आपको तो काफी कुछ बदला लग रहा होगा’’, जब मौन बहुत लंबा हो गया तो अक्षय ने पूछा।
‘‘नहीं तो,’’ राधिका ने हँसकर कहा। अक्षय को लगा कि राधिका की हँसी उसके हर्ष को प्रकट नहीं करती। यह तो पाश्चात्य औपचारिकता का एक भाग है।
‘‘आप विद्या को कैसे जानते हैं ?’’ वह एकाएक पूछ बैठी।
वह विद्या का नाम लेती है, माँ या ममी या ऐसे किसी संबोधन से नहीं पुकारती, यह नोट करते हुए अक्षय ने उसे बता दिया कि विद्या और अंजू सहपाठिनी रह चुकी हैं।
‘‘आप हाल में विद्या से मिले थे ?’’

‘‘अभी, दशहरे पर उस ओर गया था, तब भेंट हुई थी।’’
‘‘सब’’, राधिका लघु पल ठिठकी, ‘‘अच्छे होंगे ?’’
‘‘आपके पिता से बहुत थोड़ी देर को मुलाकात हुई थी। आजकल वे आधुनिक चित्रकला पर एक पुस्तक लिख रहे हैं, यह तो आपको मालूम ही होगा। विद्या ठीक थीं। और कोई खास समाचार नहीं है।’’
‘‘और वहाँ के क्या हाल हैं ?’’ राधिका ने पूछा।
‘‘वह तो आप खुद देख लेंगी, ‘‘अक्षय ने कहा, फिर आगे झुककर टैक्सी वाले को आदेश देने लगा।

दक्षिणी दिल्ली की एक नई बस्ती में अक्षय के पास एक फ्लैट था। ऊँचे-ऊँचे मकानों की एक कतार, आगे सड़क, सामने फिर मकान। रात की ट्रेन से टिकट का प्रबंध उसने कर लिया था। पहले उसने सोचा कि राधिका को किसी होटल में टिका दे, फिर ख़याल आया कि होटल में तो वह स्वयं ही जा सकती है। विद्या ने अक्षय को इसलिए तैनात किया है कि राधिका का पहला दिन अकेले न बीते इसलिए अक्षय उसे अपने ही घर ले आया। सामान उतारकर टैक्सी के पैसे देते हुए अक्षय को खयाल आया कि विदेश की तड़क-भड़क के बाद कहीं उसके सादे से घर में राधिका को कोई असुविधा न हो-राधिका ने पैसे देने का थोड़ा-सा आग्रह किया, पर अक्षय नहीं माना। जब वह ऊपर आया, तो राधिका बैठक में खड़ी थी।
‘‘आप बैठिए, खड़ी क्यों हैं !’’

राधिका बैठ गई। कमरा चौकोर था, एक सोफा दीवार से सटा रखा था, एक लेदर की कुर्सी जो कि स्पष्ट ही स्कैडिनेवियाई स्टाइल की थी। एक ओर किताबों से भरी आलमारी। सब कुछ साफ-सुथरा और दुरुस्त था, पर वातावरण-हीन।
तभी नौकर ने चाय की ट्रे लाकर मेज़ पर रख दी और सादर एक ओर खड़ा हो गया। नौकर का चेहरा- मोहरा देखकर राधिका को ताज्जुब हुआ। वह तिब्बती लगता था, साफ-सुथरे कपड़े पहने, अत्यंत शिष्ट।
अक्षय ने कहा, ‘‘सोनाम ये राधिका हैं, आज ही बाहर से लौटी हैं।’’
नौकर ने झुककर राधिका को प्रणाम किया, फिर चाय बनाने लगा। चाय की प्याली हाथ में पकड़ राधिका ने अक्षय की ओर मुड़कर कहा, मेरी वजह से आपको असुविधा हो रही है।’’
‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।’’

चाय पीकर वह दफ्तर चला गया।
तब घर में एकदम सन्नाटा, रसोई में से सोनाम की खटपट भी नहीं आती। राधिका कुछ समय तक वहीं चुपचाप बैठी रही, इस बात को मन में दोहराती हुई कि वह स्वदेश लौट आई है। आज भारत में उसका पहला दिन है। उससे मिलने कोई आत्मीय एयरपोर्ट नहीं पहुंचा। वह एक अनजान व्यक्ति के घर में बैठी है। व्यक्ति भी ऐसा कि बिना पूछे अपने बारे में कुछ भी नहीं बताता। उसका एक छोटा- सा फ्लैट है, एक तिब्बती नौकर।
राधिका अकेली है।

इस दिन की कल्पना राधिका ने बहुत बार की थी। उसे यह विश्वास था कि पापा उसे अवश्य ही लेने आएँगे, भले ही विद्या न आए। फिर वे दोनों कहीं अच्छी-सी जगह ठहरेंगे, पापा उसे भोजन कराने ले जाएँगे। वह खाने के लिए ऐसी चीजों का ऑर्डर देगी जिनके लिए वह इस प्रवास में तरस-तरसकर रह गई थी, जैसे कि खूब फूली हुई कुरकुरी पूरियाँ, काबुली चनों की मसालेदार तरकारी जिस पर हरी मिर्च और नींबू के लंबे-लंबे टुकड़े सजे हों, पनीर-कोफ्ते, दही में डूबी गुझिएँ, चटनी, सब तरह के अचार, मिर्चवाले पापड़ और अंत में मेवे छिड़का हुआ गाजर का हलवा या ताजे कटे आमों की फाँकें और मलाई या केसर से सुगंधित खूब गाढ़ी खीर।
‘‘आपके लिए पानी गर्म हो गया है,’’ सोनाम कह रहा था।
नहा-धोकर राधिका आकर सोफे पर लेट गई। कमरे में धूप भर आई, जो कि राधिका को अच्छी लग रही थी। धुले हुए बाल कुशन पर छितरा लिए, बाईं बाँह आँखों पर।

राधिका चाह रही है कि आज के दिन वे सब त्रासद बातें याद न आएँ। ठीक है, पापा से वह भयंकर झगड़ा करके विदेश चली गई थी, पर उस बात को तीन वर्ष से ऊपर हो गए, उसने तो क्षमा भी माँग ली और लौट भी आई। क्या पापा अभी भी उन बातों की गाँठ बाँधे हुए हैं ? तो आए क्यों नहीं ? किस घर में बाप बच्चों में संघर्ष नहीं होता। फिर झगड़ा पीढ़ियों के दृष्टिकोण को लेकर नहीं हुआ था। राधिका अपने व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के लिए लड़ी थी। लीक पकड़कर न चलना उसे पापा ने ही तो सिखाया था। उसके आचरण से पापा को दुख पहुँचा है, यह तो वह जानती थी, पर वह इस प्रकार निर्मम कठोर हो जाएँगे, ऐसा उसे विचार मात्र भी न था। पापा ने उसे क्षमा कर दिया होगा और उसे लेने दिल्ली आएँगे। लौटते समय उनके नाम ‘केबल’ देने के मूल में यही विश्वास था।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai